Tuesday, November 1, 2011

जाने और क्या क्या...

जाने और क्या क्या...
प्रेमचंद सहजवाला
मेट्रो में अगर दूर दूर तक डिब्बा खाली हो तो और मज़ा आ जाता है. लगता है मेट्रो बस हम चंद मुसाफिरों की है, जो नज़र आ रहे हैं. ऐसे में अचानक मोबाईल से कोई एस.एम.एस की आवाज़ भी आए तो बड़ी प्यारी सी लगती है. फ़ौरन मेसेज पढ़ने के लिये इन-बॉक्स में गया और देखा एकदम कोई अजनबी नंबर है. एस.एम.एस में लिखा है – ‘दो पल जो जले वो दीपक, दो पल जो महके वो खुशबू, दो पल जो धडके वो दिल, दो पल जो याद करे वो आप, और जो दो पल के लिये भी आपको ना भूले वो हम...’ पढ़ कर हैरानगी हुई कि यह व्यक्ति है कौन. पर फिर अभी वह पढ़ कर मोबाईल हाथ में संभाला ही कि एक और एस.एम.एस बज उठा – ‘वेर्री वेर्री लवली लवली गुड़ ईवनिंग...’ और थोड़ी ही देर में आ गए पांच छः एस.एम.एस. सब ऐसे जैसे यह शख्स मुझे सदियों से जानता हो. मैंने नंबर मिला कर पूछना चाहा कि आप हैं कौन जो मुझ से इतना प्यार जता रहे हैं भाई. इस पर वह अजनबी शख्स बोला – ‘में जूनागढ़ में रैता हूँ...’ रैता वो ऐसे बोला जैसे रायता बोल रहा हो. उच्चारण कुछ विचित्र से. मैं को में बोल रहा था. पूछा – ‘आप मुझे कैसे जानते हैं? क्या दिल्ली में कभी मिले थे हम?’ ‘नईं. हम दिल्ली आते हैं पर मिले नईं. कब्बी मिले ई नईं...’ आवाज़ अजीब, बात करने का ढंग अजीब, और अगले दिन सुबह जागो तो एक साथ छः छः एस.एम.एस. गुड़ मोर्निंग से शुरू कर के लवली लवली शब्द बार बार इस्तेमाल कर के छः एस.एम.एस और मैं हूँ कि इस सस्पेंस में ही मरा जा रहा हूँ कि यह शख्स है कौन. क्या मेरी कोई कहानी वहानी पढ़ कर पत्रिका से मोबाईल नंबर लिया? पर यह शख्स तो निरा अनपढ़ लगता है. एक बार फोन कर के पूछा – ‘आप करते क्या हैं? इतने एस.एम.एस क्यों भेज रहे हैं.’ बोला – ‘में व्यापारी हूँ. दिल्ली आता हूँ और आ के बताता हूँ में कौन हूँ.’ फिर अचानक एक और एस.एम.एस – ‘आप ड्रिंक करते हैं क्या?’ मैंने एस.एम.एस से जवाब दिया – ‘नहीं भाई, मैं तो ड्रिंक व्रिंक नहीं करता. शुद्ध गांधी का चेला हूँ. नो सिग्रेट नो मटन चिकन नो विस्की पलीज़.’ इस पर उसने खुद फोन कर दिया – ‘ड्रिंक क्यों नईं करते भाई? इतना अच्छा काम नईं करते आप?’ मैंने काल को क्ड़िच कर के काट दिया. सोचा एस.एम.एस कर के इस से पूछूं सही कि आपका नाम क्या है? इस पर जवाब आया – ‘में जूनागढ़ में रैता हूँ. नाम जगनपरसाद है!’ और माथा ठनका. अरे! इस नाम का एक आदमी तो एक दिन फेसबुक पर निवेदन कर रहा था – ‘मुझे मित्र बनाओ. पलीज़...’ मैं हंस पड़ा था. फेसबुक पर मैं भी एक होड़ में शामिल सा हो गया हूँ कि मेरे बहुत मित्र बनें. पांच हज़ार की सीमा है, और मेरे तो अभी एक हज़ार भी नहीं हए. नौ सौ बाईस ही हैं. सो जिस की फोटो सामने आ जाती है, मित्रता निवेदन भेज ही देता हूँ. कई निवेदन मेरे पास आते हैं. नौ सौ बाईस में से बमुश्किल तीस चालीस से मैं मिला हूँगा, बाकी कई मशहूर लेखक भी हैं जिन से नहीं मिला पर जानता हूँ. जब लोग कहते हैं भाई मुसलमान हो तो मैं अजनबी को फेसबुक पर मित्र बनाता ही नहीं, तब मुझे गुस्सा आता है. कई मुसलमान भी मेरे दोस्त हैं तो कुछ दूसरे देशों के भी. पर यह शख्स जगनपरसाद तो अजूबा सा लग रहा है. कह रहा है आप ड्रिंक करते हो क्या? फिर फोन कर रहा है कि आप ड्रिंक करते क्यों नहीं भाई? सोचा पत्नी ठीक कहती है, जब तक आदमी का पता ना हो ज़्यादा पहचान बढ़ाओ ही मत. और इन महाशय के दस दस बीस बीस एस.एम.एस रोज़ आते रहे. जाने कौन सी स्कीम व्कीम से फ्री एस एम एस करता होगा. एक दिन फेसबुक पर बैठा तो उसका नाम खोज निकाला, उस के पृष्ठ से पता चला कि आचार का धंधा करता है. दिल्ली में आचार का होलसेल ऑर्डर लेने आता है. पर मैंने उस से एक मैसेज भेज कर पूछा – ‘आप दिल्ली आते हो तो कहाँ ठहरते हो?’ कहना ना होगा कि इस बीच मेरा हृदय परिवर्तन भी हो गया था. सोचा एक अजनबी सही पर मेरा फेसबुक फ्रेंड बन गया है और इतनी आत्मीयता दिखा रहा है, बात करने का ढंग कैसा भी हो, जाहिल सा है, पर ठीक है, मैं अपनी ओर से तो भलमनसाहत दिखा ही दूं न. उस ने जवाब दिया – ‘हर महीने आता हूँ. बोलो कोई काम?’ हंसी आ गई मुझे. जाहिल कहीं का. मेरे सभी मित्र तो कविता या गज़ल की सुंदर सुंदर पंक्तियाँ भेजते हैं, किसी किताब का संदर्भ देते हैं कि यह ज़रूर पढ़ो भाई, किताब की फोटो तक छाप देते हैं. कोई ईवेंट होता है तो आमंत्रित करते हैं, यहाँ यहाँ, इस इस जगह एक डिस्कशन है, आना ज़रूर. और हम सब लिख देते हैं – ‘मैं आ रहा हूँ,’ या ‘मैं नहीं आ रहा’, या ‘शायद आ रहा हूँ’. पर यह जगनपरसाद तो कोरा ही लगता है. कभी बातचीत पर भी नहीं आता, पर बहरहाल, मैं अगले ही दिन बेहद गुस्से में था, उस पर नहीं खुद पर. उस का मोबाईल पर एक बेहद वल्गर सा एस. एम.एस आया. नॉन वेज भी कुछ कुछ समझ आते हैं, पर इस का तो गंदा ही था. मैं चुप रह गया. फिर एक दिन एस. एम.एस पर पूछ ही डाला – ‘आप की रुचियाँ क्या हैं, आचार तो बेचते ही हो, पर इस के अलावा क्या कहानी कविता या शायरी या फिल्म विल्म देखने का काम कुछ करते हो कि नहीं...’ उत्तर आया – ‘में अबी फेसबुक पे बताता हूँ आप कू...’ और रात को जा कर समय मिला फेसबुक खोलने का. खुद पर बहुत आक्रोश हुआ मुझे. अजनबी से अजनबी लोगों से भला मित्रता बनाने की ऐसी क्या होड़? ऐसा तो बहुत साल पहले भी होता था, लोग ‘पेन फ्रेंड’ क्लब जॉयन करते थे. ‘पेन फ्रेंड’ क्लब अधिकतर पत्रिकाओं में छपते थे. लोग अजनबी से अजनबी लोगों के पते नोट कर के उनसे मित्रता बना लेते थे. लड़कियां भी बनाती थी पर कभी कभी बुरी तरह ट्रैप भी हो जाती थी, वो ऐसे कि जिस से छः आठ महीने पत्र व्यहवार करती थी, सहेली बन कर, वह लड़की नहीं लड़का निकलता था, क्योंकि वह अबोध लड़की जब अपनी उस नई नवेली ‘पेन फ्रेंड’ को पत्र लिखती थी कि मैंने भैया से बात कर ली है, मैं कल ही उनके साथ पूना आ रही हूँ, तुम अपने घर रहना, मैं तुम्हें सरप्राईज़ दूंगी, तब वहाँ जा कर उस नकली नाम की कोई सहेली मिलती ही नहीं थी. उल्टे इधर उधर से पता चलता था कि वह तो उसी घर का कोई लड़का है जिस के कई पेन फ्रेंड हैं, और लड़की बन कर कईयों को धोखे से चिट्ठियां भेजता है. अब तो बहादुरी का ज़माना है ना, लड़कियां लड़के मित्र हैं तो यह स्वाभाविक है, अच्छा है, पर ऐसे जगनपरसाद जैसों से भला कैसे पिंड छुडाया जाए. मैंने भी कई सभ्य और रचनाशील महिला मित्र फेसबुक पर बनाई हैं जिनसे बात कर के अच्छा लगता है, बहुत सी ऐसी भी हैं जिनके नाम प्रसिद्ध हैं सो उन से विश्वास में आ कर कई बातों का आदान प्रदान भी हो जाता है. पर जगनपरसाद का एक दिन फेसबुक पर मैसेज देख कर खुद पर खीझ ही अधिक हुई. जगन परसाद लिखते हैं – ‘सीधी सी बात, में सेक्स में इंट्रेस्टिड हूँ. रेडी? बोलो फिर फोन करूँ कि न करूँ. में अगले महीने ही आ रहा हूँ दिल्ली.’ मैं खूब घबराया. इस प्रकार के मैसेज के लिये तो मैं तैयार ही नहीं था. सो घबरा कर पत्नी को आवाज़ दे दी. पत्नी कम्प्यूटर वगैरह नहीं चलाती पर कभी कभार उसे फेसबुक दिखा कर बताता रहता हूँ कि मेरे अब नौ सौ बाईस फेसबुक मित्र बन गए हैं. पत्नी को अच्छी नहीं लगती यह बात. कहती है अता न पता बस आप दोस्त बनाते जा रहे हो. लेखकों लेखिकाओं की तो बात और है, पर कभी कोई अजनबी नुक्सान पहुंचा दे तो? आप का फोन नंबर इस घटिया आदमी को कैसे पता चला?’ मैंने दिखा दिया, यहाँ प्रोफाईल में तो सब भरते हैं ना, अगर भरने हों तो. पत्नी हक्की बक्की से खड़ी थी, बोली – ‘काट दो इस आदमी का नाम, अपने फ्रेंड सर्किल से. फिर और दोस्त न बनाओ, जिन को जानते हो बस उन से ही बात करो.’ पर मुझे पता ही नहीं था कि मित्रता सूची से किसी जगन परसाद जैसे नमूने का नाम काटते कैसे हैं, और पत्नी बोली थी – ‘आपको भूल गया है. एक दिन आप ही दिखा रहे थे कि यहाँ लेफ्ट कॉलम में नीचे मित्रता सूची से निकाल फेंकने का भी प्रावधान है. लड़कियों को भी तो कुछ लोग तंग करते होंगे?’ मैं हंस पड़ा था, पत्नी से बोला था – ‘अब तो ज़माना बाई-सेक्स का चल पड़ा है, अभी और परिवर्तन के नाम पर ज़माना जाने क्या क्या करेगा.’ और ऐसा कहते कहते सब से पहले तो मैंने अपनी मित्रमंडली से जगनपरसाद नाम की उस मुसीबत का पत्ता साफ़ कर दिया था, फिर बाकी नंबरों को भी अनायास बहुत शक की नज़रों से देखने लगा था. जाने कौन क्या कह दे कभी!

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